भारत मे शिक्षा का निजीकरण और असमानता

(नितिन ठाकुर, पत्रकारिता विभाग,

हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय)

भारतीय शिक्षा प्रणाली में समानता की बात की जाए तो ज़मीनी स्तर पर समानता दिखाई नहीं देती। आश्चर्यजनक है कि, भारतीय समाज आज दो भागों  बंटा है और ये बटवारा भारत की शिक्षा व्यवस्था करती है। आज विद्यार्थी घर से शिक्षा भवन की तरफ उम्मीदों से निकलता है। शिक्षा भवन तो एक ही है, लेकिन भवन जिन व्यवस्था से जुड़े है उनमें भिन्नता है। भिन्नता का आधार भारत की सरकारी शिक्षा व्यवस्था है तो दूसरी तरफ निजी शिक्षा प्रणाली। आज गांव से शहरों की और पलायन का एक  कारण शिक्षा भी है। अभिभावक गांव छोड़कर शहरों की गलियों में किराय के कमरे में घर की हर सुख सुविधा त्यागकर अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष करते है। यहां पर एक अहम सवाल उठता है की, गांव में भी प्राथमिक, वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय है, मगर शिक्षा की मूलभूत व्यवस्था होने के बावजूद पलायन क्यों ? शहरों में खूले स्कूल, कोचिंग संस्था बच्चों को इंजीनियरिंग, IIT, PMT नीट आदि परीक्षाओं की तैयारी करवाते है और सुनिश्चित करते है कि, उनका सही मार्गदर्शन हो। उद्हारण  फ़िज़िक्स के लिए एचसी वर्मा, गणित आरडी शर्मा व मॉक टेस्ट आदि। वहीं Government Schools में मात्र उद्देश्य बोर्ड की परीक्षा पास करना रहता है। यही देखकर माँ पिता एक क्षण लाखों रुपये खर्च करते हुए अपने पग पीछे नही हटाते। IIT,  अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान -AIMS, ये सभी प्रतिष्ठित संस्थान है, जो देश को सबसे बेहतर Doctors और इंजीनियर बनाते है। ये सभी सरकारी व्यवस्था से जुड़े है तो सरकार द्वारा संचालित शिक्षा प्रणाली को एसी व्यवस्था तैयार करनी चाहिए, जिसके अंतर्गत सरकारी स्कूलों का सिलेबस इस तरह डिज़ाइन हो जिससे गांव में बैठा छात्र भी प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन कर सके। निजीकरण के चलते शिक्षा एक व्यवसाय बनकर रह गई है, मात्र एक निजीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा, जो समाज को कई हिस्सों में बांट रही है। मैं इस बंटवारे को अमीरी गरीबी का बंटवारा नहीं समझता बल्कि एक ऐसी व्यवस्था जो लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर रही है । एक ऐसी व्यवस्था जिसकी बुनियाद Privatization है। जिसमें शिक्षा भवन नहीं देश के विभिन्न कोने में कोटा जैसी अनेकों फैक्टरियां खुल रही है। शिक्षा जिसपर सबका बराबर का अधिकार होना चाहिए उसमें असम्मानता पनप रही है। प्रतिस्पर्धा की होड़ में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में कॉचिंग संस्थान भारी पैसा माता पिता से वसूल करते है , लेकिन बच्चों का सर्वांगीण विकास करने में असमर्थ है। यहां मैदान नहीं होते बच्चे किसी खेल कूद से जुड़ नहीं पाते, खान पान में पोषण नहीं। यदि कोई छात्र आवाज़ उठाए तो इस बिगड़ी व्यवस्था को संघर्ष का नाम दिया जाता है। छोटी उम्र में ये बच्चे अवसाद, डिप्रेशन  का शिकार हो रहे  है। जिन मूलभूत सुविधाओं से उन्हें अनभिज्ञ रखा जा रहा है, वास्तव में ये उनके अधिकार है। इस विषय पर स्वामि विवेकानन्द का संदेश था - मेरे देशवासियों के पास स्टील की नसें, लोहे की माँसपेशियां और वज्र की तरह दिमाग होना चाहिए। नीति जो पाठशालाओं के होते हुए कॉचिंग की अवश्यकता पर पूर्णविराम लगा सके। ज़रूरत है एक राष्ट्रीय नीति की जो शिक्षा के क्षेत्र में एक संतुलन, सामंजस्य और सम्मानता लाने में सफल हो।


 

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